दुनिया की दुर्गमतम सड़क से मौत के दर्रे का सफर
समुद्रतल से बयालीस सौ मीटर ऊंची झील की परिक्रमा करते हुए कैसे—कैसे ख्याल मन के एक कोने से दूसरे कोने हो लेते हैं और साल के आठ महीने बर्फ की दीवारों में कैद दर्रों को लांघते हुए कैसी परीक्षा देता है आपका जिस्म, इसे महसूस करना हो तो लाहुल-स्पीति के सफर पर चले आइये। हालांकि कौन सिरफिरा होगा जो खुद ही जान की बाजी लगाने दुनिया के सबसे दुर्गम रास्ते पर बढ़ा चला आता है, लेकिन ज़रा उन जांबाज़ों से पूछिए जिनके सीने में हिमालय हरहराता है हर पल और जिन्हें वहां खड़े पहाड़ बुला ही लेते हैं … बार-बार .. हर बार।
हिमाचल की किन्नौर और लाहुल-स्पीति की घाटियों से तिलिस्म-रोमांच और आध्यात्मिकता की खुराक अपने फेफड़ों में भरकर लौटी हूं, उसी रोमांच को आपके साथ साझा कर रही हूं –
किन्नौर घाटी में कल्पा से नाको के सफर में सतलुज हमसफर थी, यह वही राक्षसी नदी है जो कैलास पर्वत के आंगन में राक्षस ताल से निकलकर शिपकिला दर्रे से हिंदुस्तान में प्रवेश करती हुई खाब के पास स्पीति नदी से मिलती है। इस बीच, कितने ही ग्लेशियरों की धाराएं, नाले, छोटी-मोटी और कई नदियां सतलुज में खुद को समोती हुई चलती हैं और इनके साथ आगे बढ़ते हुए यह नदी लगातार तूफानी बनती जाती है। और दुनिया के सबसे दुर्गम मार्ग पर सफर का अनुभव इसी सतलुज नदी के किनारे-किनारे हिमाचल की किन्नौर घाटी से शुरू हो जाता है।
एक तरफ दहाड़ती सतलुज और दूसरी तरफ पहाड़ जो शूटिंग स्टोन, लैंडस्लाइड जैसे खतरों से कब आपका रास्ता रोक लें कहा नहीं जा सकता। और सड़क कहीं-कहीं इतनी संकरी हो जाती है कि यकीन नहीं होता कि आपकी गाड़ी उस पर से कैसे गुजर गई! इस सड़क के ब्लॉक होने का मतलब है कई बार हफ्तों के लिए फंस जाना।
इस बीहड़ में कहां सड़क गुम हुई, कहां नदी की धार रास्ते में घुस आयी, कब पहाड़ ने आपको रास्ता दिया और कब रास्ते में पहाड़ घुसा चला आया, कुछ भी अनुमान से परे होता है। अच्छे से अच्छा एडवेंचर प्रेमी भी इस सफर में कई-कई बार अपनी किस्मत टटोलता है और नियति के साथ अपने रिश्तों को दोहराता है। सिर्फ 10 – 20 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से सरकते हुए घाटियों-पहाड़ियों को लांघने, कितनी ही चढ़ाइयां चढ़ने और उतरने का सिलसिला दिन भर जारी रहता है। मंजिल होती है कि पास आने की बजाय दूर सरकती जाती है और सड़क के दोनों तरफ खतरे लगातार सिर उठाते रहते हैं।
हौंसलों की परख करनी हो तो चले आइये नेशनल हाइवे संख्या 5 पर, किन्नौर से स्पीति ले जाने वाले वाला यह राष्ट्रीय राजमार्ग दुनिया का दुर्गमतम मार्ग है जिस पर गुजरते हुए आपको कई बार महसूस होगा जैसे जान भी अब बचनी मुमकिन नहीं! और फिर किसी पथरीली, संकरी सड़क का मोड़ घूमते ही दूसरे ही पल मनमोहक वादी में आप खुद को पाते हैं।
सीमांत का सफर
लाहुल-स्पीति के जनजातीय इलाके किसी रहस्यभूमि से कम नहीं हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि रोहतांग, बारालाचा और कुंजुम दर्रों से घिरा यह भूभाग साल के 7-8 महीने देश के दूसरे हिस्सों से कटा रहता है।
बर्फ से घिरी इन ट्रांस-हिमालयन घाटियों में रहना किसी अग्नि-परीक्षा से कम नहीं होता। नंगे पहाड़ जिन पर घास के तिनके भी मुश्किल से दिखते हैं, हवा इतनी पतली कि सांस लेना एक बड़ा प्रयास बन जाता हो, फसलों के नाम पर आलू और मटर, फलों का नामो-निशान नहीं, घरों की दहलीज़ और खेतों तक पहुंचने के लिए बेरहम ऊंचाइयां से गुजरते संकरे, पथरीले रास्ते … आप शहरी हैं तो ये हालात दयनीय लग सकते हैं। लेकिन ज़रा किसी लाहुली या स्पीतियन का चेहरा पढ़ने की कोशिश करें, आपको वहां सिर्फ गहरा संतोष और परम खुशी दिखायी देगी। इस दुर्गम सफर में एक भी ऐसा इंसान नहीं मिला मुझे जिसे अपने हालात से कोई शिकायत हो।
सर्दियों में जब बर्फ से पट जाती हैं इनकी सड़कें और गलियां और पड़ोस के घर तक के रास्ते भी बंद होने लगते हैं, जब छतों पर रात भर जमा हुई बर्फ को माइनस पंद्रह-बीस तापमान पर भी हर दिन हटाना जरूरी होता है, जब सड़कों के बंद हो जाने पर महीनों ताज़ा सब्जियां-राशन नहीं पहुंच पाता, जब बिजली के तार कहीं किसी बर्फीले तूफान में फंसकर तीस—चालीस दिन तक भी हरकत में नहीं लौटते, जब बाहरी दुनिया से संपर्क के नाम पर इन घाटियों में हेलीपैड पर कई—कई दिन हेलिकॉप्टर नहीं उतर पाता और उड़ान भरने का मौका मिलने पर भी आम आदमी के लिए उसमें सीट का इंतज़ाम करना लगभग नामुमकिन होता है तब भी उनके चेहरों पर शिकन नहीं होता। अपने बीमार को लकड़ी की स्लेज पर घसीटकर आज भी मीलों दूर तक खींच ले जाते हैं लाहुली-स्पीतियन, डॉक्टर के नहीं होने पर सरकारों को शायद ही कोसते होंगे ये पहाड़ी … उनकी फितरत में ही शायद नहीं है शिकायती बनना।
”सर्दियों में कैसे रहते हैं यहां ?’‘ मेरे इस सवाल पर लांग्ज़ा में एक होमस्टे चला रही स्पीतियन का कहना था, ”दिन भर घर के काम में खुद को लगाए रखते हैं, आप आना इस बार सर्दी में मेरे घर, और सुनना गहराती शाम के वक्त़ बिजली न होने पर अंधेरे में डूबे हमारे घरों की दीवारों को लांघकर बाहर तक सुनायी देने वाले ठहाकों को … ये कुंजुम के परे क्या है या मनाली की रौनक कैसी होती है इससे हमें कोई वास्ता कहां। हमारी दुनिया तो यही है, और हम खुश हैं इन पहाड़ों के साथ!”
इस आध्यात्मिक रहस्यलोक को टटोलने के लिए हिमालय भूमि के कुछ प्राचीनतम मठों, गोंफाओं जैसे ताबो, की, ढंकर, लाहलुंग, कुंगरी के सफर पर निकल पड़ी थी मैं इस बार।
दुनिया के दुर्गम गांवों के सफर पर
लाहौल-स्पीति के अपने सफर को कुछ अलहदा बनाना हो तो यहां के दुर्गम, बहुत कम आबादी वाले मगर सबसे अधिक ऊंचाई पर बसे गांवों के सफर पर निकल पड़िए।
अभी कुछ साल पहले तक स्पीति का किब्बर गांव था दुनिया का सबसे ऊंचा गांव मगर इस खिताब को अब कोमिक ने हथिया लिया है। यों असली मुसाफिर को इन तकनीकी बारीकियों से, कुछ सौ-दो सौ फीट की उंचाइयों के बदलने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता तो भी 4587 मीटर ऊंचे खड़े कोमिक लोंडुप त्सेमो गोंफा में मैरून् चोगे में सिमटे भिक्षुओं के बीच प्रार्थना के कुछ पल गुजारना वाकई एक नायाब अहसास दे जाता है। उसी खास अनुभव को लेने चले आइये इस बार यहां!
काज़ा से रोहतांग के सफर की दुश्वारियां
लाहौल—स्पीति के पूरे सफर का एक नाटकीय हिस्सा मिलता है काज़ा के बाद। यहां से लोसर होते हुए चंद्रताल तक जाना किसी स्वप्नलोक के सफर में जाने जैसा होता है।
लोसर से आगे कुंजुम दर्रे की राहगुज़र किसी बीराने से गुजरने का नाम है। एक छोटी-सी पुलिस चौकी पर एंट्री करवाकर आगे बढ़ गए थे हम। मालूम था अब फिर दूर-दूर तक कोई नहीं दिखेगा। खुबानी, आलूचे और सेब के दरख़्त भी आखिरी बार शायद किन्नौर में दिखे थे। अब हम हिमाचल के दूसरे मुहाने पर थे। ट्री-लाइन से काफी ऊपर आ चुके थे। स्पीति का लगभग आखिरी पड़ाव है चंद्रताल। समुद्रतल से बयालीस सौ मीटर की ऊंचाई पर ग्लेशियर के पिघलते पानी और शायद किसी भूमिगत स्रोत से पैदा हुई चंद्रताल झील पर साल के आठ महीने पहुंचना नामुमकिन होता है।
एक तरफ चंद्रा नदी का तेज बहाव होता है जो लाहौल के दूसरे छोर पर खड़े बारालचा दर्रे से निकलकर जाने कितने अनगढ़ रास्तों से होती हुई चंद्रताल से कुछ किलोमीटर पहले आपकी हमसफर बन जाती है। चंद्रताल के लिए मुख्य सड़क से करीब 12 किलोमीटर का डीटूर लेना पड़ता है जबकि यही सड़क आगे कुंजुम के उस पार बातल निकलती है।
15039 फीट ऊंचे कुंजुम की चढ़ाई एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाए रखती है लेकिन गर्मियों के महीनों में जब इस पर जमा बर्फ पिघल चुकी होती है तो इसे पार करना कोई बहुत खतरनाक नहीं रह जाता। प्रार्थना ध्वजों से सजे कुंजुम टॉप को देखकर हरेक के मन में कुछ-कुछ होता जरूर है।
टॉप से उतरने के बाद की पथरीली सड़क अब और भी संकरी हो जाती है, यों सड़क जैसा तो जो कुछ था उसे काज़ा से कुछ आगे आने के बाद ही भूल जाना बेहतर होता है। लगता है जैसे बरसों पहले जो म्यूल्स ट्रैक था कभी उसे ही दाएं-बाएं खींचकर जीपों के निकलने के लिए बना दिया गया होगा! सालों से इसी रास्ते पर दौड़ते वाहनों को अब शायद इन चुनौतियों को झेलने की आदत सी हो आयी है और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मोरेन, चट्टानों, बड़े-बड़े पत्थरों से भरे इस मार्ग पर मुश्किल से 5 से 10 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार भी निकल पाती है या नहीं। दस कदम भी समतल जमीन मिल जाती है तो हैरत बढ़ जाती है कि कब कोई अगला अवरोध, पिघलते ग्लेशियर के पानी से लबालब भरा नाला, कोई झरना या नदी की धार रास्ता रोकने को तैयार होगी। हालांकि हिमाचली ड्राइवरों ने इन रास्तों की मनमानियों को झेलना सीख लिया है तो भी बातल और छतड़ू के बीच के भयावह नालों को पार करना आज भी मज़ाक नहीं है। इस रास्ते पर कुदरत अपने विकराल रूप के दर्शन कराती है तो साथ ही इन दिनों पहाड़ियों की ढलानों पर उगे फूल उसके कोमल मन की तरह बिछे होते हैं। इधर आप सोचते हैं कि पगलाए नालों से मुक्त हो चुके होंगे लेकिन ग्राम्फू तक इनसे कोई राहत नहीं मिलती।
इस बीच, सड़क पर गर्द के गुबार उड़ते चलते हैं, जैसे सदियों से नमी की कोई बूंद इस इलाके में नहीं गिरी। दाएं बाएं की पहाड़ियों पर पिघलते ग्लेशियर इन दिनों पतली लकीर में बदल जाते हैं, नोंकदार चोटियां अपनी सफेदी लुटाने के बाद आवरणहीन हो चुकी होती हैं और इनके बर्फीले पानी को अपनी काया में समेटती चंद्रा लगातार आकार में बढ़ती चलती है।
और कायनात की इस विशालता के बीच अच्छे से अच्छे एसयूवी का इंजन भी बेचारगी से गुजरता दिखता है।
हालांकि अब सब्र इस बात का होता है कि रोहतांग ज्यादा दूर नहीं रहा, लेकिन तो भी ग्राम्फू तक पहुंचते-पहुंचते गाड़ी और उसके सवारों का खस्ताहाल होना स्वाभाविक है। इस बीच, धूल-गुबार, नदी के शोर और नालों की दहशतगर्दी को पार करते-करते आपके मोबाइल में जैसे कोई सरसराहट-सी होती है, अब बीते कई दिनों से पस्त पड़ी उसकी स्क्रीन में कुछ हरकतें होने लगती हैं। फिर लाहौल की चोटियों और रोहतांग की ऊंची पहाड़ी काया के चलते सिग्नल की लुकाछिपी काफी दूर तक जारी रहती है। खोकसर से एक राह आपको लेह जाने की दिखायी देती है जो केलंग के लिए निकल गई है जबकि दूसरा मोड़ रोहतांग की चढ़ाई की राह पर ले जाता है।
राजधानी शिमला से बढ़े चलें हिमाचल के इस दुर्गम सफर पर, कहीं किसी सड़क पर, किसी कोने में, किसी ढलान पर या किसी चढ़ाई के दुर्गम मोड़ पर .. कहीं न कहीं अपने आपसे बातें करते पाओगे, उसी देवभूमि में जिसके बाशिंदों में आज भी देव बसते हैं!
आपका लिखा पढ़ना सुकून दे जाता है कि हिंदी में यात्रा वृत्तांत की जिस विधा से स्कूल के दिनों में परिचित हुए थे वो अभी भी जीवंत है। लाहुल स्पीति जाना अभी तक हो नहीं पाया है पर आपके द्वारा रास्ते में लिए गए चित्रों से बहुत कुछ मुझे लाचेन से गुरुडांगमार तक का रास्ता याद आ गया। काज़ा और वहाँ आस पास के बौद्ध मठों के बारे में जानने की उत्सुकता रहेगी।
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आभार मेरे यात्रा अनुभव पर इतनी सुंदर टिप्पणी का! स्पीति और लाहुल के मठों में से कुछ में तांत्रिक पद्धतियां और कहीं कहीं ओरेकल की भी परंपरा है। ताबो का मठ तो संभवत: समूचे हिमालय क्षेत्र में सबसे पुराना है। और काज़ा का स्ट्रक्चर दूर से ही आकृष्ट करता है। लाहलुंग, कुंगरी, कोमिक के मठों तक मुझे भी जाना है। बहुत कुछ छोड़ आयी हूं ताकि दोबारा जाने की कचोट बनी रहे
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v good mam nice wording
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Thank You Raj for visiting the blog!
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yes, yaad tazaa ho gayi jab 100 cc ki bike pe in road ko naapa
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