How my annual literary pilgrimage failed me
बीते तीन रोज़ में जितने भी दोस्तों से बातें हुईं सभी को मुगालता रहा कि डिग्गी पैलेस में सजी किसी महफिल में हूं। और नहीं तो जयपुर की मिर्ज़ा इस्माइल रोड पर कचौड़ी-लस्सी का नाश्ता नोश फरमा रही हूं। या फिर आमेर फोर्ट में सजी किसी संगीत की दुनिया में गुम हूं। मगर मैं इस बार ‘उन पांच दिनों’ में भी अपने ही शहर में हूं जब गुलाबी नगरी कथित तौर पर ‘साहित्य नगरी’ बन जाया करती है। 2008 से जो सिलसिला कायम था और जिसे सालाना तीरथ कहने लगी थी, उसे पहली बार तोड़ते हुए ज़रा तकलीफ नहीं हुई। दरअसल, इस साल पहली बार JLF का रुख करने वाले कितने ही दोस्तों से कहना चाह रही थी कि अगर लिटरेचर का जुनून है तो जेएलएफ नहीं जाओ। फिर सोचा, ऐसे फैसले अपने भोगे सत्य के बाद जब आते हैं तो ज्यादा कारगर होते हैं। लिहाजा, उन्हें ही उस मेले में हाथ जला आने दिया जाए जिसका नाम भले ही लिटरेचर फेस्टिवल है लेकिन अब उसमें लिटरेचर के अलावा बाकी सब है — यानी जैम, शॉल, रग, दरी, बियर, वाइन, बैग, फर्नीचर, कमीज़, कुर्ता, भीड़, अराजकता, अफरा-तफरी … सभी कुछ।
इस मेले में कुछ खो गया है तो वो जिसकी दीवानगी में हम पिछले एक दशक में करीबन आठ-नौ दफा दिल्ली-जयपुर का फेरा लगा चुके हैं। सभी कुछ है वहां – फैशन, ग्लैमर, बला की खूबसूरत युवतियां, सिगरेट के छल्ले उड़ाती हसीनाएं, बियर के जाम लहराते विज़िटर्स, अपार भीड़, अपार सौंदर्य, बेहिसाब चर्चाएं, यहां-वहां जाने कहां-कहां से जयपुर पधारीं अनगिनत हस्तियां, स्पॉन्सर्स, पार्टनर्स, आयोजक वगैरह-वगैरह।
बस नहीं हैं तो आपके वो लेखक जिनसे सीधे संवाद किया जा सकता है, वो हस्तियां जिनके अनुभव सुने जा सकते हैं, वो फुर्सतें, वो सीटें, वो सुकून की महफिलें और वैसे वैन्यू जिनमें घुस पाना, बैठ पाना, सुन पाना मुमकिन होता है। ये अलग बात है कि इस साल इसी जेएलएफ में साढ़े तीन सौ से ज्यादा लेखक-कवि पधारे हैं और दसेक वैन्यू में हवा महल, आमेर जैसी हेरिटेज इमारतों से लेकर चिर-परिचत डिग्गी पैलेस भी है।
एक वो भी ज़माना था
जनवरी यानी जयपुर, जनवरी यानी जेएलएफ, जेएलएफ यानी साहित्य का उत्सव, साहित्योत्सव यानी अपने पसंदीदा लेखकों-कवियों से आमने-सामने की मुलाकात। ‘फ्रंट लॉन’ से लेकर ‘बैठक’ तक में पहली कतार में बैठकर पैनल चर्चाओं को सुनना, किसी दीवाने की तरफ दिनभर एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी महफिल में फिरना, और ‘बैठक’ से ‘मुगल टैंट’ की तरफ बढ़ते हुए कभी गिरीश कर्नाड से टकरा जाना, कभी जावेद अख़्तर को रोककर छोटी-सी गुफ्तगू का मौका चुरा लेना। और गुलज़ार कब दूर हुए हैं इस महफिल से। प्रसून जोशी तो जैसे इसी आंगन में यहां-वहां सब तरफ रहा करते थे। लेकिन वो दिन अब लद गए। मुझे मालूम है कि रॉबर्टो कलासो की ‘का’ पर चर्चा को सबसे अगली कतार में बैठकर सुनने का ख्वाब अब कभी पूरा नहीं होने वाला।
आज भी याद है 2013 का जेएलएफ, जब जयपुर शहर में दाखिल होते-होते सवेरे के 10 बज गए थे, मुझे बेचैनी इस बात की थी कि महाश्वेता देवी का उद्घाटन सत्र ‘मिस’ हो जाएगा। गाड़ी का हैंडल डिग्गी पैलेस की तरफ घुमाया, मैं सटाक से बाहर निकली और सीधे फ्रंट लॉन में दाखिल। सड़क किनारे बड़ी-सी स्क्रीन पर उस सत्र की झलक ने बेचैन कर दिया था। सपनों को देखने की आजादी पर क्या खूब बोली थीं महाश्वेता देवी। और दलाई लामा के साथ पिको अययर का संवाद, उसे कैसे भूल सकती हूं। हालांकि कुछ हजार दीवाने उस दिन भी फ्रंट लॉन में जमा थे। मगर मैं दिनभर डिग्गी पैलेस में मटकती फिरी थी।
एक सत्र से दूसरे किसी भी सेशन में 25-30 मिनट पहले पहुंचना और कुछ यों तसल्ली पाना, कभी मुमकिन था। ऐसा आखिरी बार 2013 में हुआ था।
और हां, भूख-प्यास सचमुच नहीं लगी थी। एक कोने में बाज़ार जमा था, खाने-पीने के स्टॉल भी थे, फैशन की देवियां थीं, यत्र-तत्र सर्वत्र। डिग्गी पैलेस के आंगन में खड़े उन स्टॉल्स में बित्ता भर का पिज़्जा स्लाइस कुछ सौ के नोट उड़ा लेने का माद्दा रखता था उस रोज़ भी। हम दीवानों ने एमआई रोड का रुख किया, छककर राजस्थानी व्यंजनों का लुत्फ लिया, लस्सी पीकर अंगड़ाई तोड़ी और दोपहर बाद के सेशंस के लिए फिर डिग्गी पैलेस में दाखिल हो लिए। हां, पार्किंग से गाड़ी नहीं निकाली थी, क्योंकि दोबारा वहां दाखिल होने की गुंजाइश नहीं दिखी थी। पूरा जयपुर क्या, मिरांडा हाउस, जेएनयू, जीके, डेफ-कोल का फैशनेबल क्राउड तब तक जेएलएफ की महफिल में उतर चुका था। अब तक चर्चाओं के अड्डों तक पहुंचना कुछ मुश्किल भी हो गया था। चारों तरफ सिर्फ मुंडियां थी, बगल से गुजरते हर चेहरे पर नूर था, हील-बूट और सिल्क-पशमिना में लिपटी सुंदरियां थी।
अलबत्ता, जेएलएफ की महफिलों में सुनिश्चित हिस्सेदारी का तोड़ हमारे हाथ लग चुका था। वीकडे में पहुंचना, सुबह-सवेरे के सेशंस तसल्ली से देखना, दोपहर बाद एकाध सेशन ‘लूट सको तो लूट’ वाले फार्मूले से देखना और जब डिग्गी पैलेस के आंगन में फैशन की बहार भरने लगे तो अपने होटल लौट जाना। RTDC (Rajasthan Tourism Development Corporation) का Hotel Gangaur (गणगौर) हर साल अपना अड्डा हुआ करता था। दिनभर जेएलएफ के आंगन से बटोरे अखबार, ब्रोशर, किताबें, फ्लायर्स वगैरह शाम को गणगौर में हमें दीवाना बनाए रखने के लिए काफी हुआ करते थे। अगले दिन फिर नौ-साढ़े नौ बजे डिग्गी पैलेस में हाजिरी लगाने पहुंचना। तसल्ली से पार्किंग, बिन धक्का-मुक्का वाली एंट्री, फिर से फ्रंट लॉन से बैठक, चारबाग, दरबार हॉल, संवाद तक में मनपसंद सत्रों में शिरकत, पैनलिस्टों से सवाल-जवाब और यहां तक कि सेशंस निपट जाने के बाद फुर्सत में पसंदीदा लेखकों के साथ ऐसे वाले एक्सक्लुसिव आॅटोग्राफ बटोरू पल!
यों हमें इल्म है कि वो मेला है, मगर अदब का मेला है। और बाकी कुछ हो, लिटरेचर तो होगा वहां। पर अब ज़रा हो आइये और कौन-सा साहित्य रत्न चुन लाए हैं, हमें भी बताएं ज़रा। डिग्गी पैलेस के चप्पे—चप्पे पर भीड़ के सिवा अब क्या देख पाए आप। एक वो भी ज़माना था जब दिल्ली के दोस्त इसी हवेली के आंगन में, यहां-वहां टकरा जाया करते थे। और फिर साहित्य के समानांतर हमारी दोस्तों की महफिलें भी क्या खूब जमती थी। अब उन महफिलों को सजाने के लिए कुछ गज भर ज़मीन भी दिखती नहीं है।
इतना सुकून भरा डिग्गी पैलेस और इंफॉरमेशन डेस्क, भूल जाओ अब!
तब भीड़ की इंतिहा बस इतनी होती थी कि जावेद अख़्तर, गुलज़ार और प्रसून या फिर ओपराह विन्फ्रे, दलाई लामा जैसी शख्सियतों के सेशंस हाउस फुल हो जाया करते थे। तो भी कहीं किसी कोने में खड़े होने की ज़मीन नसीब होती थी।
लेकिन बीते कुछ बरसों में जेएलएफ से मन उचाट होने लगा था। अब इसे तो साहित्य की महफिल नहीं कहोगे न आप?
बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले
और पिछले साल स्टीव मैक्करी (of the Afghan girl fame) का सेशन ताबूत में उस आखिरी किल्ले को गाढ़ गया जिसने हमें हमेशा के लिए उस महफिल से जुदा कर दिया जिसकी दीवानगी में हम नौकरी, घर, बच्चों, कामधाम, दोस्तों तक को पीछे छोड़कर जयपुर नगरी भाग जाया करते थे। दरअसल, 10 बजे के उस ऐतिहासिक सेशन को देखने हम सवेरे सवा नौ बजे फ्रंट लॉन में उपस्थित हो चुके थे। शायद दूसरी-तीसरी कतार में हमें कुर्सियां नसीब हो चुकी थीं। वो सीटें इतराने का सबब थीं। हमें मालूम था अगले हर पल उस घास के लॉन में लोग उतरते चले जाएंगे। वो जो फोटोग्राफी के दीवाने हैं, और वो भी जो सिर्फ और सिर्फ स्टीव मैक्करी का नाम सुनकर, अपनी एक हाजिरी दर्ज कराने वहां पहुंचेंगे। मगर हमें क्या? हम तो सुकून से सुनने का इंतज़ाम कर चुके थे। करीब दस बजे हमें मालूम पड़ा कि वो सत्र दरबार हॉल में होना तय है। हम भागे, औरों के संग-संग, करीब 50 मीटर के फासले को नापने में अगले पंद्रह मिनट खप गए। दरबार हॉल के ऐन सामने पचासों दीवानों की लाइन लगी थी। शुक्र है कि जेएलएफ में बदइंतज़ामी नहीं घुसी है। हम भी लाइन में लग चुके थे। और देखते ही देखते हॉल लबालब हो गया। हमारे आगे अब भी यही कोई बीस जन थे। इल्तिज़ा में उठती कितनी ही आवाज़ें थीं, उनमें एक फरियाद मेरी भी थी। मगर जिस हॉल में तिल धरने की जगह भी न बची हो वहां हमारी फरियाद क्या असर करती? हम मन-मसोसकर रह गए। लेकिन अपनी एक घंटे की कवायद को यों फिस्स होते देखना भी मंजूर नहीं था।
और देखों कुछ यों ‘देखा’ मैंने स्टीव मैक्करी का सेशन। जी हां, सिर्फ देखा, सुन कुछ नहीं पायी थी।
छोड़ आए हम वो गलियां ..
स्टीव मैक्करी जैसे जग-प्रसिद्ध फोटोग्राफर जब जेएलफ के मंच पर पहुंचते हैं तो उन्हें दरबार हॉल जैसे नन्हे-से हॉल में समेट देना क्या उन सैंकड़ों दीवानों के साथ अन्याय नहीं होता जो शायद उस रोज़, उस वक़्त सिर्फ मैक्करी की जादुई शख्सियत को देखने-सुनने ही वहां पहुंचे थे?
खैर, फिर कभी इस ओर रुख न करने का संकल्प लिए हम लौट आए थे।
अदब की महफिलों का नौचंदी के मेले में बदलना
लोकप्रियता का पैमाना सिर्फ आंकड़ेबाजी नहीं होता। सिर्फ जमघट ही किसी मेले की सफलता का पैमाना नहीं होता। आयोजकों को मेले के संपन्न होने पर बेशक यह जानकर सीना फुला लेने का मौका इस बार भी मिला है कि जयपुर लिट फैस्ट में आए दर्शकों का औसत बीते साल से बेहतर है, लेकिन यह चिंतन करने का वक़्त भी है कि कुछ पुराने कद्रदान क्यों रूठ रहे हैं। सीमित आंगन में अपार भीड़ और उस भीड़ में साहित्य का महीन ताना-बाना कराहने तो नहीं लगा? इसी तरह, लेखकों के चयन में कंजूसी क्यों? वही पुराने नाम, पुराने किरदार बार-बार क्यों? माना जावेद अख़्तर और गुलज़ार और शशि थरूर जैसे नाम हाउस फुल होने की गारंटी हैं, लेकिन क्या उनके सत्रों में सुकून बचा है? सुबह-सवेरे के पहले सेशन में ही हज़ारों की भीड़ उमड़ने के बाद क्या दर्शकों के लिए कुर्सियां बचती हैं, ज़मीन रहती है जिस पर खड़े होकर या उकड़ू बैठकर ही सही, चर्चाओं में भागीदार बना जा सके?
भारतीय भाषाओं की हीनता का बोध कराता मेला
आयोजकों को यह भी जानना समझना जरूरी है कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं का संसार भी बहुत विशाल है, उनके लिए कंजूसी क्यों? कितना अच्छा हो अगर ‘चारबाग’ और ‘दरबार हॉल’ से अंग्रेज़ी के सेशंस के समानांतर ‘बैठक’ में उड़िया, बंगला, गुजराती या मैथिली या दूसरी किसी भारतीय भाषा की महक भी उठती रहे! होते हैं कुछेक हिंदी, गुजराती, मैथिली, राजस्थानी के सेशंस मगर उन्हें तलाशना पड़ता है।
खुद को दुनिया का सबसे बड़ा मुफ्त साहित्यिक मेला कहकर प्रचारित करने वाले जेएएलएफ में वैसे अब सब-कुछ मुफ्त नहीं रह गया है। अभी कुछ साल पहले तक डिग्गीपुरी चाय से भरे मुफ्त कुल्हड़ साहित्य के दीवानों को जनवरी की सर्द हवाओं में गरमाइश का अहसास करा जाने के लिए काफी हुआ करते थे। अब कुल्हड़ का आकार सिमट चुका है और उस पर प्राइस टैग भी चस्पां हो गया है!
साहित्योत्सवों में शिरकत – सिर्फ रसिकों का शगल ?
अभिजात्य, सुसंस्कारी, अमीर, गरीब, मध्यम वर्गीय, पेशेवर, छात्र, नेता, अभिनेता, कवि, शायर, कहानीकार, पत्रकार, नौकरशाह, लेखक से लेकर जाने कितने ही किस्म के किरदार इन मेलों में दिखते हैं। कुछ वाकई साहित्य-रस को सोखने और कुछ सिर्फ इन मेलों में दिखने! जी हां, अब साहित्योत्सवों में शिरकत करना सिर्फ रसिकों का शगल भर जो नहीं रह गया है, ऐसे मेलों में हाजिरी देना समाज में आपकी हैसियत का सूचक भी माना जाने लगा है। और कुछ नहीं तो साहित्य रस प्रेमी होने की शान तो बघारी जा सकती है!
अलका जी आपने तो एक बंद पिटारा खोल दिया जो कि हम सब के दिमाग में काफी समय से परेशान कर रहा है। jlf के शुरुआती समय से अगर देखा जाये तो अब ये literature की जगह lifestyle फेस्टिवल बन गया है। लेखक की जगह चर्चित शख्शियत नजर आते है। आपको चारो ओर फैशन का तड़का नजर आता है। चारों और फैले स्टाल के सामने 6-7 सेशन ऐसे लगता है बौने हो गए और सब और बाजारवाद ही नजर आता है। साहित्य तो नाम ही रह गया। जैसे आप ने jlf से दूरी बनायीं है वैसे अनेक मित्रों ने भी ऐसा ही किया। jlf यहाँ होने वाली दूसरी exhibition जैसी ही लगने लगा है फर्क सिर्फ इतना है कि यहाँ भीड़ कुछ ज्यादा है। अब इसे जयपुर लाइफस्टाइल फेस्टिवल कहना ज्यादा उपयुक्त होगा।
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किसी भी मेले के लोकप्रियता का शिखर छू लेने पर यही हश्र होना लाज़िम है। लेकिन लिटरेचर की गलियों से अब मेला पता नहीं किस—किस ओर मुड़ गया है। मुझे न इसके बाज़ारवाद से दिक्कत है और न ग्लैमर वाले पहलू से, बस तकलीफ इतनी सी है कि कम से कम वो सब तो मेले में परोसा जाता रहे जिसका एलान इसके नाम से होता है — लिटरेचर। और साहित्य रस को सोखने के लिए जिस माहौल की दरकार होती है, उसे भी निश्चित ही उपलब्ध कराना आयोजकों की जिम्मेदारी है। लेकिन इनके अभाव में मुझ जैसा साहित्य प्रेमी तो बस खुद को ठगा हुआ ही महसूस करता रह जाता है।
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आवश्यकता शायद इस बात की अधिक है कि कोई नया और बड़ा आयोजन स्थल तलाशा जाय जहाँ वर्तमान स्थल से कम से कम दोगुनी जगह हो।
इतने बड़े आयोजन में होने वाले व्यय की पूर्ती के चलते बाजारवाद का हावी होना एक विवशता हो सकती है पर साहित्य और साहित्यकार की उपस्थिति और चयन यदि नाम और प्रतिष्ठानुसार नहीं हुए तो इसे बाजारी मेले (उत्सव नहीं) में परिवर्तित होते देखना दुःखद ही होगा।
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हिंदुस्तान में मुझे यही दिक्कत सबसे दुखदायी लगती है, हम किसी भी एक शानदार शुरूआत को अंजाम तक पहुंचाने के बाद उसे संभाल नहीं पाते। जेएलएफ के साथ भी कमोबेश यही हुआ है। कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचकर एकाएक लुढ़कने लगा है मेला, वजह कई हैं। हां, डिग्गी पैलेस का सीमित आंगन उनमें से एक बड़ी वजह तो है ही।
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wow.. Alka.. you look so young in some of these pictures. Meanwhile, quite sad to read this post. I was thinking, next year I should attend JLF. Now having second thoughts 😦
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