How I traversed 3000 kilometers with Rs 80 in my wallet and hope in my heart
”मैडम परवाह नहीं, आप बोलो किधर जाने का है? मैं टैक्सी दूंगा आपको … परवाह नहीं”
”हंपी जाना है… मगर पैसे नहीं है ….. कार्ड लोगे?”
“मैडम, जब लौटोगे शाम को तो कार्ड दे देना, दोस्त का पेट्रोल पंप है, उधर ही पेमेेंट करने का।”
9 नवंबर की रात सिंधानूर के रामू और मेरे मोबाइल के सिग्नलों पर सवार होकर हवाओं में गुम हो गई संवाद लहरियां कुछ ऐसी थीं। एक तो वैसे ही बिंदास तबीयत, उस पर ‘वरी नॉट, टेंशन नॉट’ का महामंत्र थमाने वाला सिंधानूर का वो टैक्सी आॅपरेटर एक झटके में मेरी हर परेशानी से मुझे मुक्त कर चुका था।
उस रात जब भारत सरकार ने 1000/रु और 500/रु के नोटों को बेमानी करार दिया था, मैं घर से पूरे 1850 किलोमीटर दूर कर्नाटक में रायचुर जिले के सिंधानूर तालुका में थी।
और अगले दिन (10 नवंबर) 70 बरस की मां के साथ मैं अपने होटल से पूरे 78 किलोमीटर दूर हंपी (Hampi) के खंडहरों में भटक रही थी। हजारा राम के दरबार से हंपी के एकमात्र जीवंत मंदिर विरुपाक्ष तक, हंपी के प्राचीन बाजारों के अवशेषों से लेकर जनाना महल तक गुजरते वक़्त से खोखले पड़ चुके दरीचों-दीवारों-मूर्तियों-मंडपों की मेरी यादों के लैंडस्केप में जमाखोरी जारी थी।
विट्ठल मंदिर में रूसी टूरिस्टों का एक बड़ा ग्रुप टहलता दिखा तो उनसे पूछे बगैर नहीं रह सकी कि नोटों को लेकर हुई सरकारी घोषणा से उनकी यात्रा पर क्या असर पड़ा है। इस ग्रुप की इंटरप्रेटर कुछ देर रूसियों के साथ बातचीत के बाद मुझसे मुखातिब थी ‘कल ये लोग गोवा में थे, कुछ रेस्टॉरेंट में खाने-पीने के बाद बिल भुगतान के दौरान कुछ परेशानी हुई थी इन्हें, लेकिन यहां कोई दिक्कत नहीं हुई है… हमारा टूर पहले से बुक है, और लोकल टूर आॅपरेटर तथा गाइड सारी देखभाल कर रहे हैं।”
नरसिंह मंदिर के बाहर एक इस्राइली टूरिस्ट को देखा तो यों ही पूछ लिया कि नोटों की मारा-मारी का शिकार तो नहीं होना पड़ा है उसे। उसने आव देखा न ताव और अपने इस आॅटो ड्राइवर को आगे कर दिया, यह कहते हुए कि हर मुसीबत इसने दूर कर दी है। अब मैं आॅटोवाले से मुखातिब थी, पूछा कौन सा जादू मंतर फेरा है तुमने तो जानते हैं मासूमियत से क्या कहा उसने? ‘इन लोगों के पास तो बहुत बड़े बड़े नोट होते हैं, उसे दिक्कत तो होनी ही थी। इसलिए आज यहां इसका टिकट मैंने खरीद लिया है, और अब हंपी घुमा रहा हूं। आगे देखेंगे मुझे कैसे मेरे पैसे मिल पाते हैं … लेकिन ये तो करना ही था, आखिर हमारा मेहमान है वो।”
Twist in my travel trail – Day 1 / Nov 8 (Sindhanur-Pattadakal-Badami-Sindhanur)
घर से हजारों मील दूर के फासले पर खड़ी विरासत से रूबरू होने का जो मौका हाथ आया था वो बहुत कीमती था, लिहाजा एक-एक पल को सहेजना था और उसका पूरा फायदा उठाना था। एक सफर में रहते हुए अगले सफर का षडयंत्र रचना मेरा पुराना शगल है, उस रोज़ भी वही कर रही थी। आइहोले के चट्टानी मंदिरों, गुफाओं, दुर्गा मंदिर, मंदिरों के मंडपों, अर्धमंडपों को अपने अनुभव का हिस्सा बनाने वाली मेरी योजनाओं को भंग कर देने के लिए काफी थी फोन की घंटी। उस तरफ जर्नलिस्ट पति की आवाज़ थी और उस आवाज़ में लिपटा था प्रधानमंत्री की उस ऐतिहासिक घोषणा का लब्बो-लुबाब जिसने 8 नवंबर की उस रात से आज तक देश को झिंझोड़ डाला है। जोड़-घटा में मेरा दिमाग न पहले कभी चला है और न उस रोज़ कुछ पल्ले पड़ा, बस इतना समझ में आया कि जेब में बची लगभग सारी पूंजी कल के उजाले में बिन मोल हो जाएगी। खिड़की से बाहर ताकने पर दो-एक एटीएम दिखाए दिए, बिल्कुल खाली। कर्नाटक के उस कस्बे में शायद उस रात उस वक्त तक किसी को भी इल्म नहीं था कि अगले कुछ रोज़ क्या कुछ घटने वाला है।
पैसे निकालने का कोई तुक नहीं था, आखिर वो मशीन वही नोट उगलती जो चलन से बाहर हो गए थे। मैंने अपने वॉलेट में सजे रंग-बिरंगे कार्ड छूए, और सोच लिया अब आगे का सफर इनके हवाले।
बहरहाल, दक्षिण भारत में पहले यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल से रूबरू होने का मेरा अहसास नोटबंदी के उस पहले जिक्र पर भारी पड़ा। गर्वोल्लास से भरी थी मैं। मंजिल आने को थी, मैंने जेब टटोली, पांच सौ के पांच नोट और अस्सी रुपए छुट्टे और कुछ चिल्लर का शोर। टैक्सी बिल 2900/ रु था, होटल में अपने कमरे की तरफ दौड़ी, मां से 400/रु लिए और अपने उन 5 नोटों से छुटकारा पाया जो उस रात के बाद बेकार थे। एक राहत की सांस ली मैंने, वो नोट बला बन चुके थे, इसलिए उनसे तो खुद को मुक्त करना ही था। अब नई चिंता सामने थी कि आगे का पूरा हफ्ता काम कैसे चलेगा। लेकिन 8 नवंबर की उस रात मेरी थकान इस चिंता पर भारी पड़ी और यह सोचकर सोने चली गई कि अगले दिन देखा जाएगा।
Day 2 /Nov 9
आइहोले और उसके स्मारकों, मंदिरों, गलियों-कूचों में भटकने का दिन तय था। लेकिन जेब खाली थी, Ola और Uber एॅप सुन्न पड़ी थीं। सवारी डॉट कॉम को फोन लगाया, वो भी गुम। अब मेरे पास अपने होटल में ही बैठने का विकल्प बचा था। कुछ आलस, थोड़ी थकान और खाली जेब का वो मेल अजब था। मैंने दिनभर होटल में बिता दिया।
इस बीच, मीडिया में सरगर्मियां शुरू हो चुकी थी। http://www.indiatimes.com/ से फोन आया कि सफर में रहते हुए नए हालातों से कैसे तालमेल बैठा रही हूं? होटल के खाली कॉरिडोर में चहलकदमी करते हुए तसल्ली से अपना हाल बयान कर दिया। और अगले दिन कुछ यों छप गया था हमारा किस्सा –
उम्मीद थी कि शायद शाम तक कुछ हालात बदलेंगे। लेकिन देर शाम तक भी कहीं से कोई खबर नहीं मिली, मैंने इसे अगले दिन के लिए नई स्ट्रैटेजी बनाने का इशारा समझा। वापस रामू को फोन लगाया। उसके बाद जो घटा वो मेरी सफरी जिंदगी का बेहद कीमती अनुभव है।
बेशक, मैं देश में सदियों पुरानी विरासतों से मिल रही थी लेकिन इस दौर में, ऐसे समय में जबकि रातों-रात हमारी जेब में बंद पूंजी बेकार हो चुकी थी, कोई था जो मुझे ब्लैक मेल करने की बजाय मेरे सफर को आसान बना रहा था। बेशक, एक दिन मैं बेकार कर चुकी थी, लेकिन वो सबक का दिन था। मैंने अपने फेसबुक स्टेटस में इसका जिक्र किया तो दिल्ली से भतीजी ने यह संदेश व्हाट्सएॅप किया। ‘बुआ, मेरे पास बहुत सारे पैसे हैं, आपको भेज दूं?’
चेन्नई में बैठे ट्रैवल ब्लॉगर श्रीनिधि का संदेश यह बताने के लिए काफी था कि कर्नाटक का वो इलाका उतना भी बेगाना नहीं है जितना मैं समझ रही थी। सफरी जिंदगी ने बहुत धैर्य सिखाया है, और जिंदगी में ऐसी अमीरी भी दी है, जब जेब खाली मगर हौंसलों को खुराक देने वाले संदेश कहते हैं – चरैवेति चरैवेति।
और हम सचमुच कर्नाटक की सड़कों पर दौड़ते रहे। तुंगभद्रा के किनारे बसे और उजड़े हंपी के स्मारकों में दिनभर कहां बीत गया, पता ही नहीं चला। हंपी के एकमात्र जीवंत मंदिर विरुपाक्ष से हंपी का दौरा शुरू किया। 2/रु का एंट्री टिकट और 50/रु कैमरे का खर्च चुकाने के बाद शुरू हो गया था कितने ही मंडपों, दीपस्तंभों, अर्ध-मंडपों और गर्भगृहों तक का सफर। एएसआई का गाइड गंगाधर अब मेरे साथ था, हड़बड़ी में स्मारकों से मिलती हूं तो गाइड का दामन जरूर थाम लेती हूं।
‘टिकट काउंटर पर क्या हाल हैं?’ मैं गंगाधर से मुखातिब थी। ‘धंधा मंदा था कल तो, यहां विरुपाक्ष में तो फ्री एंट्री दी गई थी। न विज़िटर्स की जेब में खुले पैसे थे और न काउंटर पर .. मगर भगवान के दर्शनों से किसी को भी कौन रोकता ..”
सोशल मीडिया पर फुसफुसाहट शुरू हो चुकी थी। राजस्थान में, आगरा में विदेशी सैलानियों को एंट्री टिकट के लिए काफी दिक्कतें पेश आयी थी। दरअसल, विदेशियों को ऐतिहासिक स्मारकों पर 500/रु का टिकट खरीदना होता है, और ऐसे में नकद लेन-देन परेशानी का सबब था। लेकिन पहला दिन बीतते-बीतते Archaeological Survey of India ने देशभर में अपने स्मारकों पर नोटबंदी को हावी नहीं होने दिया। सरकारी ताकीद थी कि हर स्मारक पर उन नोटों को स्वीकार किया जाएगा जो अब चलन से बाहर थे। और हंपी में सैलानियों की रेल-पेल कह रही थी कि देश के इस हिस्से में स्थिति नियंत्रण में थी। और गंगाधर जैसा गाइड था जो ज्यादा न सही, एक पांच सौ का नोट मेरे लिए खुलवा चुका था।
The real test
अगला दिन असल टैस्ट के लिए मुकर्रर था। कर्नाटक में रायचूर से तमिलनाडु में तिरुचिरापल्ली तक का सफर नापने के लिए कितने ही हाइवे पार करने थे। गूगल मैप्स की शरण ली तो होश उड़ चुके थे। करीब आठ सौ किलोमीटर का फासला सड़कों पर नापना हो और जेब में नकदी सूख रही हो तो संकट की घंटियां अपने आप बजने लगती हैं। होटल बिल की चिंता कार्ड के हवाले थी मगर अप्पन की जेब लगभग खाली होने को आयी थी और मां के पास जो 4-5 हजार बचे थे वो ‘बेकार’ थे। एक बार फिर रात को बिस्तर पर हम दोनों ने अपने पर्स उलटे, गिनती जल्द निपट गई … आखिर आठ-नौ सौ के नोट गिनने में कितना समय लगता! वैसे भी नोटों की शक्ल तक याद थी, वो जो हंपी के एएसआई काउंटर पर खुलवाए थे, फिर रास्ते में नारियल पानी के बदले भी एक 500/रु का नोट भिड़ा दिया था और बदले में फिर कुछ छुट्टे नोट मिले थे। रामू एकमात्र उम्मीद था। यकीन नहीं था कि इतने लंबी दूरी के लिए वो टैक्सी देगा भी या नहीं, और देगा तो इस बार किस पेट्रोल पंप पर कार्ड स्वाइप करवाएगा?
दरअसल, मां के साथ जिस सफर में निकलना होता है उसमें ट्रांसपोर्ट के साधन सिर्फ एयरलाइंस या कार ही होते हैं। बस और रेल उनकी उम्र के चलते अपने आप खारिज हो जाते हैं। और जिन मंजिलों को हमें नापना था उन तक एयर कनेक्टिविटी बेतुकी थी।
‘रामू, त्रिची चलना है कल, टैक्सी मिलेगी न? और पेमेंट कैसे लोगे? कैश का भरोसा नहीं है …’
उसका जवाब सुनकर मैं अवाक रह गई थी।
”मैडम, अपने ‘गांव’ जाकर बैंक ट्रांसफर देना… अभी इधर घूमो, जिधर भी जाने का, बोलो और कहां जाने का है, मैं टैक्सी भेजूंगा …”
रायचूर का वो जिला जिसकी सड़कों पर दौड़ने के लिए तीन रोज़ पहले हैदराबाद एयरपोर्ट से Self Drive car लेते-लेते रुकी थी, क्योंकि सड़कों से अनजान थी और लोगों की फितरत का भी कुछ अता-पता नहीं था, अब मुझे भरोसे की एक नई घुट्टी पिला रहा था। वहां अजनबीयत और परिचय के बीच का अंतर मिट चुका था, वहां एक लोकल कैब आॅपरेटर था जिससे जुम्मा-जुम्मा दो रोज़ पहले वाकफियत हुई थी, ले-देकर 4-5 हजार का बिज़नेस उसे दिया था और आगे 800 किलोमीटर के फासले को नापने के लिए उसे अदा करने के लिए मेरे पास नकदी नहीं थी, उसके पास पेमेन्ट लेने के लिए कार्ड मशीन का इंतज़ाम नहीं था। लेकिन एक और आसान तरीका बचा था, और अब उस तीसरे विकल्प का सहारा मुझे मिल चुका था।
रामू की स्विफ्ट अगली सुबह होटल के बाहर लग चुकी थी। हवा में हल्की खुनकी थी, आसमान निश्छल और मेरे सीने में एक अजब उल्लास समाया था। शॉल में लिपटी मां पीछे बायीं ओर की अपनी पसंदीदा सीट पर सवार हो चुकी थीं। मेरे घुमक्कड़ जीवन की सबसे लंबी रोड जर्नी (the longest road journey of my life in a single day) की इससे अच्छी शुरूआत और क्या हो सकती है कि जिस मां को दुनियाभर घुमाने का मन बनाया है उनके साथ ही एक लंबा फासला नापने का मौका हाथ में था (Sindhanur, dist Raichur in Karnataka to Trichy in Tamilnadu = 800 KM)।
इस बीच, एक और खबर ने सुकून दिया था — रास्ते में पड़ने वाले किसी भी NH/SH Toll plaza पर कोई toll tax नहीं चुकाना था। National highway authority of india का यह फैसला वाकई उस परेशानी से मुक्त कर देने वाला था जिससे उस रोज़ लंबी दूरी के सफर में साबका पड़ना लाज़िम था। अब ये तो बोनस जैसा था! एक-एक कर जाने कितने ही टोल प्लाज़ा पार करते जा रहे थे हम, नकदी न सही, मगर चाहिए किसे थी?
बेल्लारी में पहला Tea-Breakfast break उसी रेस्टॉरेंट में लेने रुके जिसके काउंटर पर कार्ड स्वाइप कराने की सहूलियत थी। फिल्टर कॉफी और थट्टा इडली-सांभर के नाश्ते से तृप्त अब हम आगे की लंबी यात्रा के लिए और तैयार हो चुके थे।
गूगल मैप पर नज़र पड़ी और बेंगलुरु के आसपास होसुर दिखायी दिया। एक पुराने दोस्त का परिवार यहीं रहता है। सालों पुरानी दोस्ती को ताज़गी का जामा पहनाने का वक़्त आ चुका था। फोन लगाया और पहुंच गए उनके घर। लंच का इंतज़ाम बिना किसी कार्ड के हो गया! घर का खाना और दोस्तों का संग, लंच ब्रेक इससे परफैक्ट भी हो सकते हैं क्या?
आगे के सफर में कैब में डीज़ल भरवाने के लिए मां ने अपने हज़ार-हज़ार के दो नोटों से छुटकारा पाया। साउथ के फर्राटा हाइवे हमें अपनी मंजिल तक ले जा रहे हैं।
रात सवा नौ बजे हम तिरुचिरापल्ली के होटल में पहुंच चुके थे, ट्रिप मीटर 788.6 किलोमीटर का आंकड़ा दिखा रहा था। सारे जोड़-घटा के बाद बिल बना 10,500/ रु जिसे उस रात बिना चुकाए भी हम चैन की नींद सोए थे!
अगले दो दिन त्रिची से तंजौर तक की सड़कों को नापते हुए गुजारे, होटल की कैब और स्टेट बैंक के मेरे डेबिट कार्ड के बीच क्या खूब जुगलबंदी चली थी! बस, एक जगह मैंने मजबूरी को शिद्दत से महसूस किया था। मुनारगुडी के रंगास्वामी मंदिर से लेकर तंजौर के बृहदेश्वर मंदिर तक और त्रिची के श्रीरंगम से जलकंडेश्वर तक किसी भी जगह पैसा चढ़ाने की औकात बाकी नहीं थी। भगवान जी के दरबार में डेबिट कार्ड तो चलता नहीं, और फिर साउथ के उन मंदिरों में रखी बड़ी-बड़ी हुंडियों के आकार के हिसाब से भी मेरे पास कुछ नहीं था।
धीरे से भगवान जी से माफी मांग ली थी, यह कहकर कि ‘अब सब कुछ तो आप ही देते हो, आपको मैं क्या दूं!’ मेरे इस माफीनामे को सुनकर मंदिर के पुजारी की मुस्कुराहट देखते ही बनती थी। हमने भी मौके का फायदा उठाया, और एक तस्वीर उनके साथ कैमराबंद कर डाली।
त्रिची से चेन्नई और फिर दिल्ली तक का टिकट आॅनलाइन बुक करा दिया था, और एयरपोर्ट पर 80/रु की फिल्टर कॉफी खरीदने से पहले तसल्ली कर ली थी कि भुगतान कार्ड से स्वीकार होगा।
कैशलैस बरसों से हो चुकी हूं, इस बार कुछ अनोखा नहीं किया। बस, मीडिया ने, खबरों ने, दोस्तों ने, दोस्तों के सरोकारों ने यह याद दिलाया कि इस बार मेरी जेब खाली है। वो नहीं जानते मेरी जेबों का हाल, इसीलिए फिक्रमंद थे। अलबत्ता, उनके संदेशों ने मुझे जिंदगी की जिस अमीरी के अहसास से भरा वो अभिभूत करने के लिए काफी है, और वो अमीरी है जिंदगी में ऐसे लोगों के शामिल रहने की जो हर बिगड़े हाल में कदम-कदम पर मौजूद हैं। अब आप ही बताओ, एटीएम-बैंकों की लाइनों में खड़े न होने का मौका न मिलने का गम मनाऊं या अनजान लोगों की दरियादिली का जश्न मनाते हुए अपने भाग्य पर इतराऊं।
इस पूरे इम्तहान से गुजरते हुए करीब 3 हजार किलोमीटर का फासला मैंने नापा, सिर्फ एक रोज़ लंच और दूसरे रोज़ शाम की टी-स्नैकिंग नहीं हो पायी क्योंकि उस वक़्त जहां थी वहां इनके बदले कार्ड लेने को कोई तैयार नहीं था और अपने चंद कीमती नोटों से जुदा होना मुझे मंजूर नहीं था।
यूनेस्को विश्व धरोहर स्थलों को नापने की मेरी कहानी में एक नई कहानी जुड़ गई थी, इतिहास को नापते-नापते एक ऐतिहासिक घटना की साक्षी बनी थी। इकनॉमिक्स मेरा विषय नहीं है, जीडीपी, इंफ्लेशन भी पल्ले नहीं पड़ता लेकिन लौटी हूं तो अपने देश के उन हजारों अनजान-अनाम लोगों के प्रति एक नए भरोसे के साथ जो मौजूद हैं आज भी कहीं न कहीं, किसी मोड़ पर, कभी भी सहायता का हाथ बढ़ाने के लिए।
My route:
सिंधानूर (जिला रायचूर)—पट्टाडकल (जिला बागलकोट)—बादामी (जिला बागलकोट)—सिंधानूर—हंपी—सिंधानूर—होसूर—तिरुचिरापल्ली—तंजौर—मनारगुडी—तिरुचिरापल्ली—चेन्नई—दिल्ली (approx 3000km)
#MyHeritageTrails
Salute the Indian spirit. We have lived this many times when we implemented bank branches in remotest corner of the country. Tab card and ATM nahi tha bas insaan the.
Salute you.
LikeLiked by 1 person
वो वक़्त सीमित साधनों का जरूर था, मगर लोगों में एक-दूसरे के काम आने का जज़्बा तब आज से भी कई गुना ज्यादा था। लेकिन आप जैसे लोग आज भी हैं और मुझे याद है इस सफर के पहले दिन मदद की पेशकश का पहला संदेश आप ही का आया था। शुक्रिया!
LikeLike
Alka, I had goosebumps when I read that your cab driver offered you to transfer the money after reaching home. Such incidents restore the faith in humanity. Wonderful read.
LikeLiked by 1 person
I wanted to share all these heart warming experiences only to spread the word that we live in a country where people do not shy away from helping others by going out of their way. The cabwala never asked for my name, address or anything. All he had was my mobile no and he waited for good 72 hrs before I could do bank transfer. I have never lost faith in humanity though, but this journey has only strengthened it many times over.
LikeLiked by 1 person
मेरा तो मानना है कि अच्छे लोगों को अच्छे लोग मिल ही जाते हैं ! सारा सवाल वेवलैंथ का है। उस कैब ड्राइवर को आप में एक सच्चा इंसान दिखाई दिया तो उसने भी अपनी स्वाभाविक अच्छाई दिखाई ! यदि उसे लगता कि आप उसे फटका लगा सकती हैं तो वह भी एलर्ट हो जाता। हम भले तो जग भला ! यही शाश्वत नियम है।
LikeLike
अलका जी अनेक अच्छे किस्से सुनकर लगता है कि अभी भी कुछ लोग इंसानियत को पैसे से ज्यादा बड़ा समझते है वर्ना आजकल लोग पैसे को ही इश्वर से बड़ा मानते है। यह दुर्भाग्य है कि बहुत से टूरिस्ट को नोटबंदी के कारण घुमने की बजाये बैंक की लाइन में समय ख़राब करना पड़ा।
LikeLike
बहुत कुछ बाकी है और सच पूछो तो शहरी हदों के बाहर अभी भी इंसानियत का बोलबाला है।
LikeLiked by 1 person
बिलकुल सही कहा आपने।
LikeLiked by 1 person
The great Indian spirit. My wife was in Kolkata and the cab driver dropped her at the airport without any charge only on the assurance that he would text her account details and she would NEFT the amount to him on reaching home. This trust and the spirit keep us moving ahead. Great post and travel Alka.
LikeLike
सलाम उस भरोसे को जिसके दम पर हम इन दिनों अपनी यात्राओं को बदस्तूर जारी रखे हुए हैं। जिंदगी यकीनन, सामान्य तरीके से चल रही है।
LikeLiked by 1 person
मेरे भैया ने (जो आई.आई.टी. रुड़की में प्रोफेसर पद से सेवा निवृत्त हुए), अपनी स्विट्ज़रलैंड यात्रा का एक ऐसा ही रोचक किस्सा सुनाया था। जिस होटल में उनका आरक्षण था, वहां वह रात को २ बजे पहुंचे तो कमरा नहीं मिल पाया। अटैची लिये वह अनजान देश की अनजान सड़क के फुटपाथ पर टहल रहे थे कि अब क्या करूं! तभी एक मोटरसाइकिल उनके पास आकर रुकी। कोई पुलिसकर्मी था जो उनसे कारण जानना चाहता था कि वह रात को सड़क पर क्या कर रहे हैं। उन्होंने बताया और वह चुपचाप चला गया। पांच मिनट में फिर वही मोटरसाइकिल आकर रुकी और उस पुलिसकर्मी ने उनसे कहा कि अगर आपके पास रात भर रुकने की कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है तो आप मेरे कमरे पर जाकर रात बिता सकते हैं। मैं अविवाहित हूं, अकेला रहता हूं, कमरा यहां से १ किमी दूर ही है। मैं ड्यूटी पर हूं, आपको कमरे तक छोड़ने भी नहीं जा सकता। आप चाहें तो ये कमरे की चाबी ले लीजिये और चले जाइये। रास्ता मैं समझा देता हूं।
भैया असमंजस में पड़ गये कि कहीं इसमें कोई कुचक्र तो नहीं ! पर मरता क्या न करता, चाबी ली, रास्ता समझा और धड़कते दिल से पहुंच गये। कमरे का दरवाज़ा खोला, अन्दर घुसे ! एक लोहे का पलंग, इधर उधर बिखरे हुए कपड़े (जो कि बैचलर रूम की विशेषता होती है! 🙂 ) दीवार पर एक पोस्टर लगा था जिस पर लिखा था – “What I have seen in this world makes me believe in what I haven’t seen!” बस, भैया को उस नेकदिल पुलिसकर्मी के जीवन का फलसफा समझ आ गया और वह निश्चिन्त होकर वहां सो गये! सुबह को जब कमरे का मालिक आया तो दोनों ने चाय पी, भैया ने उसे धन्यवाद दिया और अपने होटल पर पहुंच गये।
अच्छे लोग हर जगह मिलेंगे, बस शर्त एक ही है कि आप भी अच्छे होने चाहियें !
LikeLike
सिंधानूर से स्विट्ज़रलैंड तक, इंसानी फितरत के ऐसे कितने ही किस्से हैं जो यादों को मथते हैं। सलाम उन सभी अनजान—अनाम नेक दिल इंसानों को।
LikeLike
वाह ! बढ़िया घुमक्कड़ी हुई । टैक्सी वाले ने आप पर भरोसा किया उसका बड़ा दिल । पर उसने भरोसा क्यूँ किया ? क्योंकि उसे आपमें सच्चा इंसान दिखा ।
LikeLike
नैक दिल इंसान हो तो आपको इस दुनिया मे अच्छे लोग मिलेगे ।
बहुत अच्छा लगा ।
LikeLiked by 1 person
I have had a similar solo trip experience without money, during demonetozation… hats off to you..
LikeLiked by 1 person
पहली बार आपके ब्लॉग पर आयी, पढ़कर बहुत अच्छा लगा। रामू जैसे नेकदिल इंसान किस्मत वालों को ही मिलते हैं।
LikeLike
आप आती रहिए, हमारे साथ भटकने का लुत्फ लीजिए
LikeLike