Ayodhya – then and now

अयोध्या में 30 घंटे

अयोध्या का जिक्र इससे पहले मेरी यात्राओं में कभी नहीं हुआ है। अयोध्या के नाम ही के साथ जो भारी-सा परिप्रेक्ष्य जुड़ गया है, बिन जाने, बिन देखे ही जो सैंकड़ों किस्म की धारणाएं बन गई हैं, या देखने-जानने के बाद जो समझ पैदा हो गई है, विवाद खड़े हो गए हैं, तमाम विचारधाएं इसके इर्द-गिर्द बुन दी गई हैं और मतों-मतभेदों के सिलसिले चल पड़े हैं, उसके बाद मैं कभी उस तरह से इस नगरी को देख-जान सकूंगी जैसा कि दूसरी मंजिलों के सफर में होता है, इस पर मुझे हमेशा से संदेह रहा था। और देखो न भूमिका में ही इतना बड़ा वाक्य भी बन गया!

दरअसल, एक वो वाली अयोध्या है जिसे मई 1992 में पहली-पहल दफा देखा था। उम्र के अल्हढ़पन में उस देखे-जाने का आज सौंवां हिस्सा भी यादों में कहीं बाकी नहीं रहा है। फिर दिसंबर 1992 बीता। और तभी से अयोध्या वैसी नहीं रह गई, जैसी मैंने देखी थी। सीता रसोई, कैकैयी भवन, अखाड़े, अखाड़ों से पटी गलियां … सुनते हैं अब वो सब कुछ भी बाकी नहीं रहा वहां।

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और अब जब पूरे 24 साल बाद एक बार फिर अयोध्या नगरी में कदम रखा तो किस्मत ने कुल-जमा 30 घंटों की मोहलत देकर जाने की नेमत बख्शी थी। मगर काफी थे वो घंटे यह समझने के लिए कि अयोध्या वैसी तो कतई नहीं है जैसी हमारी दूसरी धर्म नगरियां हैं। बहुत फर्क है हरिद्वार-काशी और अयोध्या में।

समय मुट्ठी भर हो सारा आसमान नापना हो तो मेरी एक ही स्ट्रैटेजी रहती है, गाइडेड टूर/वॉक का हिस्सा बन जाने की। किसी एक्सपर्ट का हाथ पकड़कर अनजान मंजिलों के बिखरे सिरों को जोड़ना आसान हो जाता है। मैंने यही किया और  Mokshdayni Ayodhya Walk चुनी।

मोक्षदायिनी सैर शुरू हुई थी हनुमान गढ़ी से। सीढ़ियों की एक लंबी कतार को पार कर मंदिर के अहाते में पहुंचा जाता है। राम की अयोध्या में हनुमान का वास तो होगा ही, और वो रहते हैं यहां हमेशा हनुमान टीले पर जिसे अब हनुमानगढ़ी भी कहते हैं।

हमारी सैर का अगला पड़ाव कनक भवन था। कैकेयी ने सीता को मुंह दिखाई में यह भवन दिया था। मौजूदा भवन 19वीं सदी में ओरछा और टीकमगढ़ के राजाओं का बनवाया हुआ है और ठीक उसी जगह पर बनाया गया है जहां कैकेयी की मुंह दिखाई वाला भवन खड़ा था।

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Kanak Bhawan

काली-सफेद टाइलों की शतरंजी बिसात-सा सजा कनक भवन का आंगन लगभग खाली था। मंदिर में आरती का वक़्त हुआ जाता था, पुजारी झाड़-पोंछ में लगे थे और मैं मंदिर की मूर्तियों के दर्शनाभिलाषियों की कतार में सबसे आगे थी। न घंटे, न घड़ियाल, न भीड़, न शोर, न पंडे न भिखारी और न कुहनियों से सटे भक्त जन। और मैंने खुद को याद दिलाया मैं अयोध्या में थी!

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एक पुराने अहाते के सामने आशीष अपनी कमेंट्री निपटाकर आगे बढ़ गए, शायद लगा होगा कि इस बेरंग मंदिर में मेरी दिलचस्पी नहीं होगी। अब कोई कैसे समझे कि खंडहरों के नीचे दबी कहानियों को कान लगाकर सुनना जिसका शगल हो उसके लिए तो यह इमारत अभी काफी अच्छे हाल में है। लिहाज़ा, मैं बढ़ गई थी चहारदीवारी के उस पार जो कुछ भी था उसे देखने-समझने।

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वो टीकमगढ़ की महारानी का बनवाया कंचन भवन था, अपनी जेब-खर्ची को बचाकर-छिपाकर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण पर लगाती रही। महारानी को भला जेब खर्ची बचाने की क्या जरूरत? सवाल मन में था, मुंह में ही रह गया। फिर अपना ही तर्क जुटा लिया कि राजा और प्रजा का पैसा नहीं बल्कि अपने हिस्से में आए पैसे को बचा-बचाकर इस मंदिर को बनाने के सुख से वो खुद को बेदखल नहीं करना चाहती होंगी।

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बहरहाल, इतिहास है, तभी तो कई-कई व्याख्याओं के लिए खुला भी है, एक तर्क मेरा भी सही

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beautiful interior of Kanchan Bhawan

कनक भवन के बाद कंचन भवन से होते हुए ऋणमोचन घाट से गुजरना भी उसी अहसास को पुख्ता कर रहा था कि अयोध्या हमारे बाकी तीर्थों से एकदम अलग मिजाज़ रखती है। सरयू के इस घाट पर डुबकी यानी मनुष्य जन्म रूपी जितने भी ऋण व्यक्ति पर बकाया होते हैं उन सभी से मुक्ति मिल जाती है। हिसाब-किताब की मोहलत नहीं थी उस रोज़, लिहाज़ा डुबकी की बजाय सैर जारी रखी।

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हमें नागेश्वर मंदिर में दर्शन करने जाना था। ज्योतिर्लिंगों में से एक है यह मंदिर। यहां हल्की-फुल्की भीड़ थी, लेकिन वो जो मंदिरों में होती है, वैसी नहीं। नागेश्वर मंदिर की कहानी ने फिर उस ख्याल को पुख्ता किया था कि कुछ तो बात है इस हिंदुस्तान में कि इसके हर कोने की एक कहानी है।

IMG_20160615_092354 राम पैड़ी तक पहुंचने की हड़बड़ाहट थी या जल्द से जल्द अयोध्या में छितराए मिथकों, कथा-कहानियों को समेट लेने का लालच कि मैंने खुद को कहीं रुकते हुए नहीं पाया। यह मेरे ‘स्लो टूरिज़्म’ के फलसफे से बहुत अलग था। इतिहास के भी परे का इतिहास मेरे इर्द-गिर्द था और मैं किसी पुराने युग की दीवारों के बीच से गुजरती जा रही थी। यहीं वो घाट था जहां लक्ष्मण ने देह विसर्जन किया था।

और मेरी स्मृतियों में वो 24 साल पुराना गुप्तार घाट तैर गया। घाट पर बिछी रेत पर दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा था। सरयू के उसी तट पर भगवान राम ने देह त्याग किया था। और मैं इस बार फैज़ाबाद से 14 किलोमीटर दूर अयोध्या के लक्ष्मण घाट पर थी। क्या यह भी संयोग था कि पिछली दफा गुप्तार घाट और इस दफा लक्ष्मण घाट?

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Ram ki Paidi (can you spot a soul here?)

गुप्तार घाट का चौबीस साल पुराना सन्नाटा याद था, और इस बार राम पैड़ी भी श्रद्धालुओं की भीड़ से मुक्त दिखी। क्या अयोध्या ऐसी ही है, चुप-चुप, शांत, शोर-शराबे से दूर? राम की जन्मस्थली में, दशरथ की नगरी में, सीता की ससुराल में, भरत के महल में, कैकेयी के महल में क्या अब कोई नहीं आता? मेरे मन में सवालों का घमासान मचा था और मैं राम जन्मस्थान की गलियों को कभी का पीछे छोड़ आयी थी। दीवारों, कंटीली तारों, सिपाहियों से घिरी रामलला की झांकी देखने की मेरी कोई इच्छा नहीं हुई थी। मुझे मालूम था यह journalistic harakiri जैसा था, लेकिन उस रोज़ अयोध्या की गलियों को नापते मेरे कदम कुछ और ही तलाश रहे थे।

 

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और मेरी मुट्ठी से सरक रहे घंटों का तकाज़ा था कि मैं अपनी अगली मंजिल की तरफ बढ़ गयी। यह था अयोध्या शोध संस्थान (तुलसी स्मारक भवन)। अभी कुछ महीनों पहले तक यह निरंतर रामलीला का स्थल था, बीते कुछ महीनों से रामलीला मंचन रुका हुआ है। और बहुत कुछ है जो जारी है।

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शोध संस्थान की पहली मंजिल एक अद्भुत आर्ट गैलरी है जहां कितने ही कलाकारों की पेंटिंग्स टंगी हैं। इन पेंटिंग्स में छत्तीसगढ़ के रामनामी समुदाय के आदिवासियों से लेकर अमृतलाल वेगड़ के वन प्रस्थान करते राम हैं, सीता की अग्नि परीक्षा है, हनुमान की लीलाएं हैं, दशरथ विलाप है, कहीं युद्धरत राम-लक्ष्मण हैं तो कहीं अयोध्या के सिंहासन पर विराजी राम की खड़ाऊं हैं .. इस राममय संस्थान में मुखौटे हैं, फड चित्र हैं, राम साहित्य है, राम संबंधी शोध कार्य है।

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Ram, Sita & Lakshman as they begun their 12 year exile in the forest, painting by: Amritlal Vegad

मोक्षदायिनी सैर पूरी होने को आयी थी, मगर मन था कि शोध संस्थान की गतिविधियों को और करीब से, कुछ और देर तक देखने के लिए अड़ा था। लिहाज़ा, मैंने आशीष से विदा ली और बाकी बचे दो घंटे पहली मंजिल पर प्रदर्शित फड चित्रों, अजब-गजब मुखौटों और लाइब्रेरी के नाम कर दिए। और वहां मेरे हाथ लगा एक और खज़ाना। मगर उसकी जानकारी अगले पोस्ट का विषय है। इंतज़ार करिए, उस खास लाइब्रेरी का जिसका शोधकार्य तो है ही खास मगर और भी बहुत कुछ है बहुत खास। मिलते हैं जल्दी, अगली पोस्ट में।

और हां, जाते-जाते एक झलक इस दिव्य भोजन की देखते जाइये। मोक्षदायिनी सैर असल में इसी के साथ शुरू होती है। अयोध्या में कदम रखते ही ऐसे भव्य अंदाज़ में होता है स्वागत। और आप हो जाते हैं कायल अपनी हिंदुस्तानी रवायतों के।

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a hearty welcome in Ayodhya with traditional food

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To read more about Ayodhya and other heritage places in Uttar Pradesh, please refer to the Heritage Arc guides authored by friend and co-founder of travel media community #TCBG (Travel Correspondents & Bloggers Group)  Puneetinder Kaur Sidhu for LP India.

8 thoughts on “Ayodhya – then and now

  1. यूँ ही फेस बुक पर इक दोस्त द्वारा पसंद किये जाने के फलस्वरूप आपका पोस्ट अयोध्या तब और अब पढ़ने का मौका मिला .सुन्दर ,सरल और ठेठ अंदाज न किसी भारी भरकम शब्दों की कलाकारी न ही ज्ञान बाँटने की कोशिस अच्छा लगा जैसे कोई दोस्त अपने किस दोस्त को अपने संस्मरण सुना रहा हो ,यूँ ही लिखते रहे बहरत के मशहूर पर्यटन स्थल पे तो बहुतेरे लिखने वाले है हा मज़ा तब है की उन अनछुई जगहों जिसकी अपनी एतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर है उसकी कहानी वाहन के लोगो की जुबानी सुनाई जा सके व्यंजनों का स्वाद समझाया जा सके वरना उनकी कहानी समय के साथ गम हो जायेगी .
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    • नीयत तो यही रहती है कि जो कुछ अनदेखा है, कम देखा है, कम जाना है उसे बेहतर तरीके से जाना जाए और फिर अपने अनुभवों को बगैर किसी ‘वाद’ का चश्मा चढ़ाए बांटा जाए। ब्लॉग तक आने और इस सुंदर फीडबैक के लिए आभार

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  2. बहुत सूचनापरक और दिलचस्प फीचर पूरी अयोध्या की सैर करा दी. धन्यवाद अलका.

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    • शुक्रिया अपनी प्रतिक्रिया को इतनी सादगी से मुझ तक पहुंचाने के लिए। आगे भी अयोध्या का और दूसरी कई मंजिलों का सफर जारी रहेगा, साथ रहिएगा।

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