एक समय था जब हमारे सफर पर निकलने का मकसद होता था किसी नई जगह को देखना, वहां की संस्कृति को जानना-समझना और इसी बहाने अपनी आपाधापी से कुछ रोज़ के लिए बरी हो जाना। इस सफरी जिंदगी को जीते-जीते आज एक दशक से भी ज्यादा वक्त बीत गया है, बहुत-सी मंजिलों को छू आयी हूं इस बीच। मगर आज हालत यह है कि एक सफर पर होती हूं और दूसरी की योजना बुन रही होती हूं। अक्सर सफर के दौरान ही अगली मंजिल तय कर लेता है मन। आज घुमक्कड़ी के सरोकार बदल चुके हैं, सफर के बहाने भी। पहले सफर का मकसद एक नई मंजिल हुआ करता था, और आज सिर्फ सफर के लिए सफर पर निकलती हूं। बस, यूं ही कहीं निकलना होता है, जाना होता है, अपने इनर्शिया को तोड़ना होता है ….रैन्डमली ! घुमक्कड़ी की राह में यह मुकाम मिल जाए तो समझो यायावरी का समीकरण पूरा सीख लिया है। अब कहीं पहुंचने के लिए यात्राएं नहीं होतीं, किसी से भागने के लिए भी नहीं, बस यात्रा की खातिर होती हैं यात्राएं।
अपने देश में अभी यायावरी की जड़ें उतनी गहरी नहीं हुई हैं, जैसी वैस्ट में मिलती-दिखती हैं। यही वजह है कि आज भी हिंदुस्तान में यायावरी साहित्य उतना समृद्ध नहीं दिखता जितना और दूसरे कई देशों में है। बेशक, हिंदी में राहुल सांकृत्यायन उस्ताद यायावर कहे जाते हैं और फिर आगे चलकर अज्ञेय, मोहन राकेश तक ने उस परंपरा को निभाया। यायावरों की एक नई पौध भी इधर दिखने लगी है। पत्रकारों की। अपनी बीट कवर करने के सिलसिले में हर पत्रकार रिटायरमेंट तक पहुंचते पहुंचते काफी सफर कर चुका होता है। जेब से अठन्नी भी निकाली नहीं, और ये लो हो गया देश-विदेश का दौरा। फिर किसी दिन झक चढ़ी तो बना डाला एक मेमोयर ‘जो मैंने देखा’ से लेकर ‘जो मैं जिया’ टाइप तक। हुजूर, ये कैसी यायावरी हुई, न आपने मंजिल तय की, न मंजिल पर टिकने का वक्त, और तो और, आप कहां जाएंगे, कहां घूमेंगे, किससे मिलेंगे, यह तक आपने तय नहीं किया, और ये लो आप बन गए घुमक्कड़। पासपोर्ट पर जब बीसियों देशों के वीज़ा चस्पां हों तो संस्मरण लिखने का अधिकार तो तकनीकी रूप से मिल ही जाता है, न !
बहरहाल, हमारे यहां आज भी घूमने का मतलब है अमीरी, शौक, जिंदादिली, दीवानगी, नएपन की तलाश, वगैरह वगैरह। लेकिन हर किसी के लिए सफर के मायने अलग-अलग होते हैं, कुछ जाते हैं सालाना वैकेशन पर । बच्चों की गर्मियों की छुट्टियों में मायके की दौड़ ही वैकेशन होती है कुछ के लिए। कोई तीर्थ को सैर-सपाटा बताता है, हरिद्वार, वृंदावन, वैष्णो देवी और बहुत हुआ तो सोमनाथ या फिर चार धाम यात्रा। शहरों में बसे प्रवासी अपने होम स्टेट लौटने, दो-चार-पन्द्रह रोज़ गांव में हो आने को ही सफर मान लेते हैं। कोई बुराई नहीं है, हरेक का मुहावरा जुदा है, जोड़-गणित अलग हैं।
मेरे लिए मन की भटकन को विराम देने का नाम है घुमक्कड़ी ! यात्रा जितनी लंबी, जितनी टेढ़ी, जितनी विचित्र होती है, उतना ही मानसिक सुकून देती है! जैसे कंप्यूटर की हार्ड डिस्क फॉरमेट होती है, ठीक वैसे ही दिमाग, उसकी हर एक तह, मन और उसकी एक-एक मांसपेशी को विश्राम मिलता है सफर पर निकलकर। किसी को एडवेंचर की तलाश होती है, किसी को रोमांच की, कोई तरह-तरह के व्यंजनों को चखने की ही खातिर बैकपैक लेकर निकल पड़ता है तो कोई इतिहास से रूबरू होने, भूगोल से आंख मिलाने और कभी पहाड़ से बतियाने तो किसी समंदर की लहर से खिलंदड़ी की तमन्ना जगने पर ही अपनी यायावरी के घोड़े दौड़ा लेता है।
यात्राएं मीठे नशे की तरह होती हैं, जब उतर जाता है नशा तो फिर सुरूर की तलाश शुरू हो जाती है। सफर कितना सुखद, सुहाना, शानदार होता है इसका पता तभी चलता है जब हम लौटने पर भी उसकी यादों से खुद को बरी नहीं कर पाते। सफर एक आदत बन जाता है तब, हर दिन एक सूटकेस में से ही जीने की आदत पड़ जाती है।
alka bhai kaya likhati ho tum mai to kayal ho gai fantas……… so sweet
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